मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

नेट कबीलों की यह दुनियां

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कैसी अजब गजब की नेट कबीलों की यह दुनियां
ना दिखे इसमें इधर का और ना दिखता उधर का
क्या है झूठ सच कुछ नहीं सब है इधर उधर का
इधर-उधर कॉपी-पेस्ट बोझा ढोते मृतक मेलों का
कितनी अजब गजब नेट कबीलों की यह दुनिया
इसमें खिलाने को सब है पर खाने को कुछ नहीं
दुनियां के सब झूठ पाखंडो से भरा यह कबीला
बेचारा सच-प्रकाश इधर उधर दब रह जाता
बड़ी अजब गजब की दुनियां दुनियांवालो की
रंगों में रंगीन है दुनिया ना ईमान ना दीन है 
वासनाओं का दामन थामें प्रेम के गीत सुनावे 
तृष्णाओं का संगम अपराधों का ठिकाना नहीं
दुनियां को देखों कैसी अजब गजब की दुनियां
बम्ब फोड़ भागे आगे..पीछे उसके पुलिस भागे
ई-मेल सूचना दे भागे इधर उधर यह दुनियां
यह कैसी अजब-गजब नेट कबीलों की दुनियां
चेटिंग को दिन रात चाटते रहती यह दुनियां
लड़का-लड़की भागे घर छोड़ नेट-चेटिंग से
आकर्षण के बहाव को प्रेम समझे यह दुनियां
प्रेम समझे क्यूँ भागे नेट कबीलों की दुनियां
नगांपन दिखाती झांकती कबीलों की दुनियां
प्रेम समझे ना खुद सीखाती यह नेट दुनियां
कैसी अजब-गजब की नेट कबीलों की दुनियां
प्रेमी संग मिलाती खुद दूर भागे चली जाती
खुद आगे वो पीछे नाच-नचाती यह दुनियां
बेशर्मो कुछ सोचो इस प्रेम को प्रेम रहने दो
प्रेम जगत रहते बेराग तत्व क्यूँ पनपाते हो
आंधी चली तो प्रेम-आँचल सब उड़ जायेंगे
तन ढकना दूर जब मन को ढांक ना पाओगे
स्थिति समझो कोई किसी का ना हो पायेगा
मन जब आपका जड़ बन स्थिर हो जाएगा
नेट कबीलों की दुनियां सब उजड़ जायेगी
सब ही रंग रंगीनियों से काफिर हो जाओगे
कैसी जीवन रचना करने चले तुम सब यह
बचपन से प्यास बुझाती आई इस दुनियां की 
यह धरती माता है इसकी प्यास कौन बुझाऐ
आधुनिकता ओढ़े माँएं खुद बचपन भूल जाए 
शिशु का वक्त आया वक्ष अपना छीन ले जाए
निर्दयीता में रेखा लांघी आधुनिक कबीलों ने 
ना झांके चरित्रों को झाकें सब इन शरीरों को
वाह रे वाह..कैसा गजब इन माँओं का संसार
नेट कबीलों का आलिशा यह घर उजड़ा सा
उज्जाले को छोड़ सब अधेरों में सर मारे फिरे 
अपनी-अपनी ही गाते दूजे को बचकाना माने 
कैसी आधुनिकता भरी नेट कबीलों की दुनियां
बहुत उज्जाड़ा और बहुत भुगता है यहाँ तुमने
शुभ-रीत बनाकर उस पर तुम चल कर देखो   
प्रेम-प्यार तुम अब अपने सब संजोना सीखो
बाकी सब ये रेले है प्रेम-प्यार की रेल में बैठो
आसमा में उड़ना छोड़ धरती पर चलना सीखो
कैसी स्रष्टि की रचना जिसके पुत्र हम अकेले है
देखो हम अकेले है फिर भी हम सब के मेले है
प्रेम-प्यार से रहना सीखो नहीं उज्जड जाओगे
माँ ना कहे कि मेरे बच्चे मेरे होकर भी दूजे रहे
नग्न संस्कृति ने छिना है हमसे अपनों का प्यार
यह वस्त्र लौटादो उनको जिनसे लिए थे तुमने
आओ सब मिलकर बनाए अपने ही घर संसार
प्रेम-प्यार गीत गुनगुनाए संध्याकाल बेला में
इस प्रेम-धारा में रह गए साथ मेरे अलबेले है
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उसका है निवेदक.. आपका स्नेही.. यशवंत